रिव्यू- राजस्थानी सिनेमा के माथे का कलंक ‘वीरा’
राजस्थानी सिनेमा के इतिहास में सबसे खराब फिल्म का दर्जा किसे दिया जाए। अगर यह कभी बहस हुई तो ‘वीरा’ को याद किया जाना चाहिए। आज गंगानगर वाला लाया है आपके लिए – राजस्थानी सिनेमा के माथे का कलंक ‘वीरा’ का रिव्यू। हालांकि यह फिल्म पिछले दिनों राजस्थान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से नवाजी गई थी।
एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी। यह तो आपने, हमने बहुत सुना है। लेकिन उन्हें किसने मारा? कभी विचार किया? नहीं तो राजस्थानी फिल्म “वीरा” देखकर भी आपको पता नहीं चलेगा। तो यह राजा रानी की कहानी क्यों? सुनाई जा रही है। उसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी। अब आप कहेंगे कहना क्या चाहते हैं? तो जनाब सवाल का जवाब तो आप भी पूछिएगा फिल्म के निर्माता, निर्देशक, लेखक से भी की आप कहना क्या चाहते हो फिल्म से?
एक लड़का बड़ा ओहदा रखता है कंपनी में है। लेकिन ऑफिस उसका किसी आम भारतीय परिवार जैसा है। एक लड़की जो नौकरी करने उसी लड़के के ऑफिस में आई है। साथ लाई है “वीरा” को। राजस्थान में वीरा का मतलब भाई से है। अब आ तो गई वो और एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उसकी जान पर बन आई। किसने मारा उसे? उसके ही भाई ने? कंपनी के उस लड़के ने? या किसी और ने?
आप जब तक यह सब सोचते हैं तब तक फिल्म एकमात्र ठीक-ठाक गाना देकर खत्म हो जाती है। दरअसल कमी आप दर्शकों की ही है जो ऐसी कचरा फिल्में देखते नहीं और देख भी लें तो उसे बनाने वालों को लताड़ नहीं लगाते। राजस्थानी सिनेमा के इतिहास में यह सबसे घटिया फिल्म होने का दर्जा पाती है। ऐसा निर्देशन जिसे देखकर उल्टी होती है। ऐसा अभिनय जिसे देखकर आप उल्टी करने लगते हैं। ऐसी एडिटिंग जिसे देखकर आप एडिटिंग करना भूल जाएं। ऐसा कैमरा एंगल जिसे देखकर आप अपने मोबाइल में तस्वीर तक लेना भूल जाएं।
कायदे से यह फिल्म आपको सब कुछ भुला देती है। बचिए ऐसे सिनेमा से। नहीं तो देखिए ताकि कचरा और अच्छे सिनेमा में फर्क महसूस कर सकें मर्जी आपकी। तरस तो तब आता है उन फिल्म फेस्टिवल वालों पर जो राजस्थान के सिनेमा को आगे बढ़ाने के नाम पर ऐसे कचरे को बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड देकर उन्हें प्रेरित करते हैं कचरा परोसने के लिए।
यह फिल्म सरासर संसाधनों की बर्बादी है। सिनेमा के नाम पर यह ऐसा धब्बा है जो सदियों तक याद रखा जाएगा। इस फिल्म से राजस्थानी सिनेमा के माथे ऐसा कलंक फिल्म वालों ने लगा दिया है जिसे शायद ही धोया जा सके। सुना था चांद में दाग है इसलिए वह खूबसूरत लगता है लेकिन सिनेमा के नाम पर ऐसा दाग देखकर आप केवल तरस खा सकते हैं। ऐसी फिल्में बनाने वालों के निर्माता, निर्देशक, लेखक और पूरी टीम से कई तकनीकी लोग ही अभिनय कर लेते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि कोई और नहीं देखेगा उनकी फिल्म को।
राजस्थानी सिनेमा के नाम पर दिनेश राजपुरोहित जैसे निर्देशकों पर आजीवन बैन लगा दिया जाना चाहिए की वे कभी फिल्में ना बनाएं। ऐसी फ़िल्मों के कलाकारों और उनकी तकनीकी टीम पर भी धाराएं लगाई जानी चाहिए। करीब एक घंटे लंबी इस फिल्म को अवॉर्ड देने वाले फिल्म फेस्टिवल्स वालों को भी शक की निगाह से देखा जाना चाहिए कि वे ऐसी फ़िल्म बनाने वालों को प्रेरित क्यों कर रहे हैं।
नोट – 1 हाल में हुए राजस्थान इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड पाने वाली इस फिल्म को जितना हो सके दुत्कारिए। इससे बेहतर आप एक घंटा इंस्टाग्राम पर रील देखने में बीता लीजिएगा।
नोट – 2 राजस्थान का होने के नाते मुझसे अपनी भाषा का ऐसा सिनेमाई अपमान बर्दाश्त ना हो सका। भाषा तल्ख लहजे में इसलिए ही लिखी गई है ताकि हमारे राजस्थानी सिनेमा के इतिहास को ऐसे लोग मिटाने ना पाए।