‘अमरनाथ’ करना जीवन सफल करने जैसा है
तेजस पूनियां, अमरनाथ, 2011
साल 2010 का समय था। बीकॉम में प्रवेश की प्रक्रिया चल रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेज में नाम आया। लेकिन विषय मेरा एक मैच नहीं कर रहा था प्रवेश प्रक्रिया के हिसाब से। हार कर ये उम्मीद छोड़ दी थी कि विषयों की समस्या के चलते 15 कॉलेज में जिनमें नाम आया उनमें ही प्रवेश नहीं मिल रहा था। उसी समय अचानक भाई ने अमरनाथ यात्रा के लिए सारा बंदोबस्त कर लिया था। इधर दिल्ली से वापस जाने लगा। आधे रास्ते ही पहुंचा था घर के इतने में खबर आई कि जाकिर हुसैन कॉलेज में बात बन गई।
फिर अमरनाथ यात्रा दिल में बसी थी लिहाजा प्रवेश लेने से इनकार कर दिया। इस तरह अमरनाथ यात्रा गया। और यात्रा जिस समय करनी थी उन दिनों नजले की समस्या से जूझ रहा था। भाई से कहा मेरी बारहों महीने तो नाक बहती रहती है, नजले से। यात्रा में मुझे कम से कम 15,20 रुमाल रखने पड़ेंगे। तब भाई ने विश्वास दिलाया कि तू तो चल। एक दिन भी तेरे यात्रा शुरू करने से लेकर खत्म होने तक नाक बह जाए तो तेरी टांगों के नीचे से निकल जाऊंगा। वैसे भाई हमेशा हर किसी को यही डायलॉग मारा करता था। मेरे यात्रा करने से पूर्व भाई 4,5 बार जा आया था। पहली बार जब वह गया था तो वहां आतंकी घटनाओं की खबरों से हम सब सहम गए थे। फिर भाई ने जब अमरनाथ से फोन किया कि वह सुरक्षित है तो सबकी जान में जान आई।
खैर इधर मैं भी अमरनाथ चल पड़ा अबकी बार। पहलगाम के जरिये यात्रा शुरू होने से पहले बस कई जगह रुकी थी। उसी दौरान पहली बार अमृतसर के गोल्डन टेम्पल तथा जलियांवाला बाग के दर्शन भी किए थे। पहलगाम के दुर्गम रास्तों से होते हुए करीबन 32 किलोमीटर पैदल यात्रा करके हमने सुबह 5,6 बजे के करीब बाबा बर्फानी के जो दर्शन किये वह जिंदगी का सबसे खूबसूरत और अनमोल दिन था।
इस यात्रा के बीच में कई खूबसूरत नजारे मैंने जिंदगी में पहली बार देखे थे। प्रकृति को इतने नजदीक से देखने का अवसर जिंदगी में पहली बार मिला। शेषनाग झील जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां शेषनाग अब भी है और उसकी खोज के लिए कई गोताखोर और पनडुब्बी नीचे गहरे तक गई लेकिन वे खोज कर पाने में असफल रहीं। बल्कि वे लोग बाहर ही कभी वापस न आ सके। कई जगहों पर बेशुमार लंगर। पौषपत्री में तो 56 प्रकार के व्यंजन मिल रहे थे। जीवन में पहली बार बादाम का हलवा , काजू का हलवा, 7 प्रकार के गोल गप्पे और न जाने क्या क्या जिनके नाम तो पहली बार सुन रहा था साथ ही देख भी पहली बार रहा था।
दर्शन करने से पूर्व गुफा के ठीक सामने हमारे अपने ही शहर श्री गंगानगर अमरनाथ लंगर सेवा समिति के कैम्प में जूते उतार नंगे पांव चल पड़े। भोलेनाथ के जय कारे लगाते हुए। पांव बर्फ पर रखे रखे इतने ठंडे हो चुके थे कि कोई हथौड़ा भी मार दे उन पर तो पता न चले। अमरनाथ बाबा के दर्शन कई देर तक किए। लोग सिक्के फेंक रहे थे कुछ वहां अपनी तस्वीरें चिपका रहे थे। पुजारियों द्वारा लाख बार मना किया गया कि आप जयकारे मन में लगाएं और सिक्के न फेंके। बल्कि दान पात्र में डालें। क्योंकि ऐसा करने से गुफा में एक प्रकार से गर्मी उत्पन्न होती है और बाबा बर्फानी उस गर्मी से पिघलने लगते हैं।
मैंने अपनी भी तस्वीर एक जगह चिपकाई और मन में ही जयकारे लगाता रहा। साथ ही कई मनोकामना मांग रहा था। वे सभी मनोकामनाएं तो पूर्ण हुईं ही। साथ ही यह भी अरदास कर रहा था कि हे भोलेनाथ अगर मुझे पेट की भूख न लगे, आप मेरी भूख को हमेशा के लिए शांत कर दो तो मैं आजीवन यहीं ठहर जाऊंगा। लेकिन ऐसा कहाँ सम्भव है। यात्रा के दौरान जाना था कि इस गुफा की खोज एक गड़रिये ने की थी। उस मुस्लिम गड़रिये को आज भी अमरनाथ में आने वाले चढ़ावे का एक बड़ा हिस्सा दिया जाता है। तब तक अमरनाथ श्राइन बोर्ड की स्थापना नहीं हुई थी। लेकिन इस बोर्ड को बनाने की कवायद तेजी से शुरू हो चुकी थी। उसके 2,4 साल बाद जाकर सम्भवतः यह प्रस्ताव पास हुआ था और फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड बना। अब बोर्ड बनने के बाद भी उस मुस्लिम गड़रिये को चढ़ावे का हिस्सा मिलता है या नहीं इसकी जानकारी नहीं है मुझे।
इस यात्रा के बाद कई बार जाने का प्लान बना। लेकिन कहते हैं न कि जब तक कोई भी देवता अपने यहां न बुलाए, बुलावा न आए उसके दर्शन का तो आप नहीं जा सकते। उसके बाद जाना तो नहीं हुआ लेकिन एक दशक बीत जाने के बाद भी वे यादें अमिट छाप छोड़ कर जा चुकी हैं। उस समय वहां से लौटकर आया तो उसके दो दिन बाद मुझे नजले की समस्या फिर से हुई। लेकिन अमरनाथ की यात्रा में 10 दिन तक न कोई ज्यादा भूख लगी, न प्यास और नजले का तो जैसे नामोनिशान ही नहीं था। मैं भूल चुका था उन दस दिन की मुझे ऐसी भी कोई समस्या थी कभी। हालांकि चढ़ाई करते-करते सांस भी कई बार फूली थी। एक बार दवाई लेने की जरूरत भी महसूस हुई। सिर दर्द की एक गोली खाई और फिर आगे चल दिए। कारण ये कि 13 हजार फीट तक चढ़ना पैदल जाना इस सबमें यह समस्या थोड़ी सी आ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है।
यात्रा के लौटकर उसकी तस्वीरें फेसबुक पर भी लगाई थी। लेकिन फिर एक बार तमाम सोशल मीडिया के अकाउंट्स परमानेंट बन्द कर देने के कारण वे तस्वीरें भी चली गईं। कुछ तस्वीरें हार्ड कॉपी के रूप में थी। लेकिन पिछले कुछ साल पहले भाई के साथ अपहरण के मामले के चलते वे तस्वीरें भी जाती रहीं। लेकिन तस्वीरें हों न हों यादें तो हैं बाबा बर्फानी की। अफसोस भी कि आए दिन उन तस्वीरों को देखकर जो रोमांच फिर से महसूस होने लगता था उसका क्या?
अब उस रोमांच को केवल मैं महसूस कर सकता हूँ वे तस्वीरें किसी और को नहीं दिखा पाऊंगा। न खुद कभी देख पाऊंगा। उस समय मोबाइल भी नहीं थे हमारे पास। तस्वीरें तो जब मोबाइल हाथ आया और फेसबुक पर जुकरबर्ग की दुनिया में प्रवेश लिया तब शेयर की थी। खैर शिवरात्रि ही नहीं बल्कि आए दिन अमरनाथ यात्रा याद आती है। अब फिर से जाने की तम्मना है। यात्रा के लिए प्रवेश प्रक्रिया शुरू हो गई है। देखते हैं इस बार बाबा बर्फानी बुलाते हैं या नहीं। यात्रा के दौरान सुना था कि गुफा के पीछे चीन है और हम वहां नहीं जा सकते।
एक दृश्य वह भी देखा था कि हजारों लोग उन बर्फीली पहाड़ियों की गहराई में दबे पड़े थे। एक तरफ संकरे रास्ते इतने संकरे की दो लोग भी एक साथ चलने मुश्किल हो जाएं। लेकिन उन्हीं रास्तों पर खच्चर भी चल रहे थे। एक तरफ लोग जा रहे थे तो एक तरफ लोग आ रहे थे। खच्चरों के साथ-साथ पैदल यात्री भी थे।
मेरे ही सामने एक परिवार तो उस दस हजार फ़ीट गहरी खाई में जा गिरा था, जो खच्चर पर यात्रा कर रहा था। बेहद ही कम रुपयों में हमने वह यात्रा मजेदार तरीके से पूरी की थी। साथ ही लौटते हुए 15,20 किलो बादाम और 10-15 किलो अखरोट भी खरीदकर लाए थे। रुकने के लिए फ़ौजी कैम्प का सहारा लिया ताकि खर्च कम हो। क्योंकि मुस्लिम बहुल इलाका होने के कारण वहां मुस्लिम लोगों ने ही ज्यादा कैम्प लगाए हुए थे। और उस समय में वे एक रात ठहरने के, बर्फ पर सोने के भी 500 से 1000 रुपए वसूल रहे थे। यह तो वे उन लोगों से वसूल रहे थे जिन्हें वहां के बारे में पूरी जानकारी थी। जिन्हें जानकारी नहीं थी जीवन में पहली बार यात्रा कर रहे थे उनसे कितना वसूल करते होंगे ऊपर वाला ही जाने। नहाने के लिए भी बस उन दस दिन में एक बार नहाया दर्शन करने से पहले। उसके लिए भी काफी जोड़ तोड़ करके 100 रुपए में एक बाल्टी जिसमें एक आदमी मुश्किल से नहा पाए इतनी छोटी बाल्टी में पानी खरीदा था। नहाकर फिर दर्शन की प्रक्रिया शुरू की।
खैर 10 दिन की इस यात्रा में मैंने पाया कि वहां बेशुमार गन्दगी भी लोग करके चले आते हैं। पहाड़ों पर हम यात्राएं करने के लिए जाते हैं तब वहां भी ऐसे ही गन्दगी फैलाकर आ जाते हैं। क्योंकि हम हिंदुस्तानियों के खून में ही है ये कि जहां जाओ वहां गन्दगी फैलाकर आओ। गन्दगी के रूप में अपने निशान छोड़कर आने की पुरानी आदत जो है। उसी समय एक तस्वीर गुफा के काफी नजदीक मैंने भी ली थी। वैसे गुफा के सामने या कुछ थोड़ा दूरी पर भी गुफा के सामने खड़े होकर तस्वीर लेना प्रतिबंधित है। लेकिन याद के तौर पर ली। उसी समय एक ब्लैक कमांडो आया और उसने कैमरा हाथ से छीनना चाहा। मैंने विनती की कृपया छोड़ दें कैमरा। जीवन में पहली बार आया हूँ। दोबारा जाने कब आ सकूँगा। मेरे सामने ही एक दूसरे कमांडों ने किसी का कैमरा छीनकर उन दस-पंद्रह हजार फीट गहरी खाई में गिरा दिया था। इस बात से मैं भी डर गया था। बावजूद उसके तस्वीर ली।
और जब विनती अपनी राजस्थानी भाषा में कर रहा था तो वह कमांडो पूछ बैठा कहाँ से आये हो भाई? तो मैंने अपने गंगानगरी होने का बताया। उसने बस इसलिए छोड़ दिया कि वह खुद गंगानगर का रहने वाला था। अब उस यात्रा की एक भी तस्वीर मेरे पास नहीं है। लेकिन उन यादों को जीवन भर साथ रहना ही है। किसी दिन बाबा बर्फानी फिर से बुलाइये ना। बड़ी याद आती है। बड़ी मुसीबत और मुश्किलों में है आपका यह बेटा। मेरी भूल चुक माफ कर बाबा बर्फानी एक बार पुनः अपने दर्शन करने की अनुमति दीजिए।
नोट- यह पोस्ट अमरनाथ जी की यात्रा के सालों बाद महाशिवरात्रि पर लिखी गई थी। सभी शिव भक्तों को अशेष शुभकामनाएं देवों के देव महादेव आप सभी की केवल सात्विक मनोकामनाएं पूर्ण करें।
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