विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ- भाग तीन
दिल्ली विश्वविद्यालय में एक दशक से भी लम्बे समय से अध्यापन कार्य कर रही डॉ. रक्षा गीता के द्वारा लिखी गई यह शोधपरक सीरीज विज्ञापन लेखन के सम्बन्ध में शोध कर रहे छात्रों के लिए निश्चित तौर पर मार्गदर्शन एवं शोध में संदर्भ के रूप में सहायक होगी। अभी तक हमने विज्ञापनों के बारे में भाग एक और भाग में जाना कि विज्ञापन क्या होते हैं? और कैसे यह समाज को प्रभावित करता है? इसके साथ ही हमने इसकी विभिन्न विद्वानों के द्वारा दी गई महत्वपूर्ण परिभाषाओं से भी रूबरू हुए। आज इस शोध परक लेख के तीसरे भाग में हम विज्ञापनों के सामाजिक उत्तरदायित्वों को जानेंगे। विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ- भाग एक को पढ़ने के लिए इसे भी देखें
विज्ञापन तथा सामाजिक उत्तरदायित्व
भारतीय समाज, संस्कृति में विज्ञापन हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके है। विज्ञापन को देखकर ,उसके जाल में फंसकर अपनी रुचि बनाना, सामान खरीदना अब आम बात है जबकि अधिकतर विज्ञापन भ्रामक होते है, सामजिक यथार्थ से कोसो दूर, जो हमे संवेदनाओं के धरातल पर कमज़ोर करते हैं। उपभोक्ता की बुद्धिमत्ता को विज्ञापनों ने ठूंठ कर दिया है। इसका सामाजिक प्रभाव ये हुआ कि हम हमारी ही संस्कृति को हीन मानने लगे। जलेबी, लड्डू, मोहन थाल, मालपुआ ,चमचम, सन्देश, (जिसे बंगाली भाषा में सोंदेश भी कहा जाता है) गुलाबजामुन, रसगुल्ला, कृष्ण भोग बर्फी, कलाकंद जैसी अनगिनत मिठाईयों की जगह “कुछ मीठा हो जाये” जैसे विज्ञापनों के माध्यम से उसकी जगह एक चॉकलेट ने ले ली। आज का बच्चा इन मिठाइयों के नाम तक नहीं जानता स्वाद तो दूर की बात है। स्वदेशी उत्पाद भारतीय संस्कृति को पुनः स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं संदर्भ बाबा रामदेव के पतंजलि के उत्पाद।
समाज व संस्कृति को दरकिनार करते हुए कुछ मिथ्या व्यावसायिक विज्ञापन आर्थिक लाभ को केंद्र में रखकर तैयार किये जाते हैं। ऐसे विज्ञापनों का सामाजिक सरोकार लगभग न के बराबर होता है यहाँ पर व्यावसायिकता के दौर में सामाजिक दायित्व कहीं न कहीं पीछे छूटते नज़र आते है। संजय बघेल अपनी किताब ‘विज्ञापन और ब्रांड में लिखते हैं कि “नैतिकता का सीधा सम्बन्ध अच्छे और बुरे की अवधारणा सही से जुड़ा है। इसके माध्यम से यह निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जाती है, कि क्या सही है और क्या गलत। सही और गलत का निर्धारण समय और स्थान के अनुसार किया जाता है। इस सिद्धांत का निर्धारण कभी भी किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रखकर नहीं अपितु एक समूचे समूह को ध्यान में रखकर किया जाता है। विज्ञापन का, नैतिकता का प्रश्न सीधे-सीधे किसी देश के सामजिक व्यवहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन और वहां के सामजिक और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा होता है। विज्ञापनदाता उपभोक्ता को रिझाने के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ता। कई बार विज्ञापन अतिरंजित ,मिथ्या पूर्ण और अवसरवादी दिखाई देने लगते है।” भूमंडलीकरण के युग में टेलीविजन के साथ-साथ अन्य संचार माध्यमों से समाज में भारतीय संस्कृति को विकृति करने वाले विज्ञापन खूब
प्रसारित हो रहे हैं ऐसे अनेक विज्ञापन दिखाये जाते हैं जो उपभोक्ता को जोश से भरकर उनके तर्क तथा विवेक की सीमाएँ तोड़कर उन्हें सामाजिक हानि पहुँचाने वाले रास्तों की ओर ठेलते हैं।
कम्पनियों के व्यापार तथा मुनाफों की खातिर उपभोक्ता को दिग्भ्रमित करते हैं। जो कि दीर्घकालीन दृष्टि से एक
स्वस्थ सामजिक-सांस्कृतिक परम्परा का परिचायक नहीं है, बल्कि समाज विरोधी है। अपनी किताब ‘विज्ञापन डॉट कॉम’ में डॉ. रेखा सेठी लिखती हैं- विज्ञापन बनाने के लिए देश में ‘‘एडवरटाइजिंग स्टेन्डडर्स कॉउन्सिल ऑफ इण्डिया या भारतीय विज्ञापन मानक परिषद् का अस्तित्व है। इसकी विज्ञापन संहिता बहुत व्यापक तथा स्पष्ट है फिर भी इस संहिता का उल्लंघन हो रहा है। उपभोक्ता परिषदें भी उपभोक्ताओ के हित में सक्रिय हैं, फिर भी समाज विरोधी तथा खतरनाक विज्ञापनों की टीवी. पर भरमार है। देश की विज्ञापन एजेन्सियां आज निरंकुश होकर सामाजिक दायित्व की अपेक्षा करने लगी हैं। इस विकृति को रोका जाना अति आवश्यक है। बी.बी.डी.ओ. विज्ञापन एजेंसी के अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय सृजनात्मक निदेशक जोज़ी पॉल विज्ञापन को मात्र ब्रांड या उत्पाद बेचने वाला नहीं मानतेI उनके अनुसार “एक विचार, संकल्पना, उसके कारण और समग्र मानवीय दर्शन को बढ़ावा देना भी विज्ञापन का काम हैI इस प्रकार विज्ञापन मात्र एक आर्थिक प्रक्रिया न रहकर सामाजिक संदर्भों में भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
विज्ञापन गुरु अलिक पद्मसी का कहना है की भारतीय उपभोक्ता वर्ग विवेक से कम भावना से ज्यादा किसी भी उत्पाद से जुड़ता है इसलिये भारतीय विज्ञापन एजेंसियाँ अपने विज्ञापनों में किसी न किसी प्रकार से भावात्मक तत्व को ज़रूर डालना चाहते हैं। 90 के दशक में सफोला का एक विज्ञापन आता था। इसमें एक छोटा सा बच्चा किसी बात पर जब घर छोड़कर जा रहा होता है तो उसे उसके रामू काका जलेबी का लालच देकर रोक लेते हैं। यह विज्ञापन आज भी हमारी स्मृति छाया हुआ है। सफोला ने शायद, इसी कारण घरों में जगह बना ली। “दूसरी ओर नैतिकता की आज के विज्ञापनों ने चिंदी चिंदी कर दी है। विज्ञापन के प्राम्भिक दौर में स्वयं हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड के लोग (लिरिल साबुन का विज्ञापन)इस विज्ञापन के विरोध में थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि एक लड़की झरने के नीचे बिकनी में नहते हुए दिखाया जाये। भारत जैसे परम्परागत समाज के लोगों को इस प्रकार की काल्पनिकता भरे विज्ञापन स्वीकार करना
मुश्किल था लेकिन जैसे ही विज्ञापन को टीवी के परदे पर लाया गया ,ओड़ी हुई सारी सामाजिकता और
नैतिकता के बंधनों को तोड़ते हुए यह विज्ञापन लोगों की ज़बान पर चढ़ गया।
विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ- भाग दो को पढ़ने के लिए देखें
आज अश्लीलता विज्ञापनों का अनिवार्य गुण बन गया है। संजय बघेल लिखते हैं – “इस तरह के अश्लील विज्ञापनों से जनता का नैतिक पतन होता है और आजकल नग्न एवं अर्द्धनग्न स्त्रियों के चित्र विज्ञापन हेतु प्रदर्शित करना एक सामान्य बात हो गई है अत: इसका प्रभाव जनता पर अच्छा नहीं पड़ता। लिरिल साबुन के विज्ञापन के माध्यम से सेक्सुअल और अपील को पैदा किया गया था। इससे क्या लगता है? यह विज्ञापन युवाओं और उपभोक्ताओं के मन में एक ऐसी जिज्ञासा जगाता है जिसमें वह अपना प्रतिबिम्ब देखने लगता है…”जिस देश में एक बाल्टी पानी सही ढंग से नसीब नही होता वहाँ झरने की कल्पना ही बेवकूफी है।” संस्कृति हमारी जीवन शैली पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। संस्कृति, उपभोग की वस्तुओं के विषय में लोगों की पसंद, शैली,रहन सहन ,खान पान , पहचान आदि से जुड़ी होती है और जीवन शैली को एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न बना सकती है। टेलीविजन की बात करें तो उसके दर्शक ज्यादातर वे लोग होते हैं जो बिना किसी प्रतिरोध के संचार माध्यमों के विचारो को सहजता से स्वीकार कर लेते है ,साथ ही उनके प्रभाव को अपने जीवन में भी उतरने का प्रयास करते है| किसी एक सीरियल की विभिन्न कड़ियों में किसी उपभोग वस्तु या ऐसे ही किसी अन्य उत्पाद को दिखाकर उसका प्रचार- प्रसार के लिए अवसर उपलब्ध होते है जैसे कोई मुख्य कलाकार एक विशेष ब्रांड का ड्रिंक्स पीता है या किसी विशेष मॉडल की गाड़ी में बैठता है अथवा फिर एक विशेष कंपनी का मोबइल इलैक्ट्रोनिक डिवाइस प्रयोग करता है तो प्रत्यक्ष ही उस उत्पाद विशेष का प्रचार होता है।
ऐसे दृश्यों के लिए कंपनियां, बहुत अधिक पैसे ख़र्च करती हैं और चूंकि टीवी द्वारा उत्पन्न की गई झूठ आवश्यकताओं को वह अपने लिए प्राथमिक आवश्यकताएं समझता है इस लिए उपभोग की संस्कृति में ग्रस्त हो जाता है। सामजिक
सरोकारों की लड़ाई करने वालों का तो यहाँ तक कहना है कि आज टी.आर. पी. के खेल में मीडिया नग्नता कामुकता बाजारवाद और उपभोक्तावाद का मुख्य स्रोत बन गया है जिससे दिनोंदिन हमारी संस्कृति और सभ्यता का सत्यानाश होता जरह है।….यहाँ लाभ-लोभ की संस्कृति काम कर रही है ना कि सामजिक सुरक्षा और उसके उत्थान की। विज्ञापन के कारण कई उपभोक्ता उन वस्तुओं को भी खरीद लेते हैं जो कि उनके लिए आवश्यक नहीं होती हैं इस प्रकार उनका सीमित धन अनावश्यक वस्तुओं पर खर्च हो जाता है। ऐसा करने से धन का अपव्यय होता है। परिणाम स्वरूप बचत जैसी संकल्पना को विज्ञापन हतोत्साहित करते है।
विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ शीर्षक से हमारी यह शोध परक सीरिज अभी और जारी रहेगी….
क्रमश: