रिव्यू- ‘प्लाट नंबर 302’ का गोल गप्प्पा कनेक्शन

Featured In IMDb Critics Reviews
राजस्थान के जयपुर में किसी जगह एक लड़की ने फांसी खाकर आत्महत्या कर ली है। पुलिस इस जांच में जुटी है कि उसने सच में आत्महत्या की है या उसे किसी ने मारकर फांसी लगा दी। है न कहानी दिलचस्प मुम्बईया स्टाइल में? इस तरह की ढेरों कहानियाँ हम पर्दे पर देख चुके हैं तो अब राजस्थानी भाषा में प्लाट नंबर 302 में आखिर ऐसा क्या नया है? पिछले दिनों राजस्थान, हरियाणा, मुंबई और बैंगलोर के कुछ सिनेमाघरों में आई यह फिल्म बनाई है श्रीगंगानगर के रहने वाले उन निर्देशक ने जिन्होंने स्टेज एप्प के लिए पहली बार ‘कर्ज रो घुघंट’ नाम से एक छोटी सी कॉमेडी वेबसीरीज बनाई थी। आंकड़ों के मुताबिक़ भले ही वह पहली वेबसीरीज थी परन्तु सिनेमा के पैमानों के लिहाज से अपन ही थे जिन्होंने इसे पहली वेबसीरीज का दर्जा नहीं दिया था। हालांकि बाद में सभी ने इसके बाद आई वेबसीरीज को पहली वेबसीरीज स्वीकार किया। यानी अपने लिखे रिव्यू का असर तो हुआ था ओटीटी वालों पर भी और इतिहास में दर्ज करने वालों पर भी… खैर।

विजय सुथार अब लेकर आये हैं ‘प्लाट नंबर 302’ कायदे से उन्हें “प्लॉट नंबर 302” लिखना चाहिए था… खैर। अपराधियों में डर, आमजन में विश्वास लिखना तो उन्हें कायदे से यह भी ऐसे ही चाहिए था… खैर। पुलिसवाला कह रहा है अपराधी से क्यों नाम खराब करो हो आपका माँ-बाप को। कायदे से पूछना तो यह आम दर्शक को चाहिए हर उस राजस्थानी सिनेमा बनाने वाले से जिन्होंने सिनेमा का ही सत्यानाश कर दिया है। फिल्म के पहले ही सीन में जब लड़की फांसी पर टंगी है तो उसके बाप को बेसुध होकर भागना चाहिए था… खैर। सब्जी की थैली और फ़ोन गिराकर बेसुध होने वाला बाप मोटरसाइकिल में चाबी लगा रहा है… खैर। बेटी मर गई तो आँसू तो नजर आये पर बहुत बाद के के सीन में… खैर। हवलदार और इंस्पेक्टर की ड्रेस राजस्थान में अलग-अलग कब से हुई पुलिस विभाग से इसकी भी जांच करवाई जानी चाहिए… खैर। पड़ोसी लड़का बयान दे रहा है बाप बेटी के तल्ख़ रिश्तों का और लड़की के गर्भवती होने का… खैर। पुलिस का जांच कक्ष पर्दे पर उभर रहा है मगर मजाल है टेबल पर एक भी फ़ाइल नजर आये… खैर। जयपुर की घटना है फिल्म की कहानी का प्लाट मगर जयपुर में गाड़ी नंबर है आर जे 11… खैर। जिस बेटी पर बाप जान छिड़कता था उसी को मारने की योजना बनाने लगा… खैर। माँ सौतेली है और लड़की एचआईवी पॉजिटिव है गोल गप्पे खाने के कारण… खैर।

बस इस फिल्म को देखते हुए भी आपके मुँह से ऐसे ही खैर… खैर… खैर शब्द कई बार निकल सकता है। एक चेहरे में छिपे होते हैं कई चेहरे जिसे भी देखना गौर से देखना। किसी शायर ने ये बातें राजस्थानी सिनेमा बनाने वालों के लिए ही कही होंगी आज समझ आता है। इस फिल्म के रिव्यू में फिल्म की कुछ कहानी बताने की कोशिश की है आप पाठकों को समझ आई या नहीं आई मेरी बला से… खैर। क्योंकि जब फिल्म की कहानी में ऐसे ही कई बातें समझ आए और कई नहीं तो रिव्यू में बताई कहानी समझ आएगी भला… खैर
राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
अल्ताफ हुसैन, सीमा दिनोदिया, घनश्याम बेनीवाल, दीपक गुर्जर, अभिषेक जांगिड, रूद्र खत्री, अलीशा सोनी आदि कई कलाकारों ने मिलकर फिल्म में अभिनय तो अच्छा किया किन्तु जब कहानी का रायता ज्यादा पतला होकर पतीले से बाहर बिखरने लगे तो उसमें दोष बजट का है? या फिल्म लिखने और उसे बनाने वाले का? कायदे से एक भिंडी करारी होती है और एक भिंडी मलाई। बस ये फिल्म भी भिंडी जैसी है, मगर उस भिंडी जैसी जो करारी तो है पर उसमें मलाई नहीं पड़ी है। इस करारेपन में सेक लगा है तो अभिनय का, कुछ एक अच्छे दृश्यों का, दो-एक अच्छे लिखे गये गानों का। लेकिन जो मलाई इस फिल्म में बैकग्राउंड स्कोर, सिंगर, कलरिंग, मेकअप, लोकेशन्स के साथ कुछ एडिटिंग की पड़ी होती तो यह उम्दा फिल्म हो सकती थी। विजय सुथार को चाहिए कि इस फिल्म को वे ओटीटी पर लाने से पहले कम से कम 10 मिनट छोटा कर लें तो बेहतर नहीं तो यह राजस्थानी सिनेमा के उसी ख़ाके में फिट बैठेगी जहाँ इसके गोल गप्पा कनेक्शन से राजस्थानी सिनेमा को एचआईवी होने का खतरा बढ़ता दिखेगा।

पहले भाग में सरपट दौड़ती इस फिल्म के दूसरे भाग में भले ही कमियाँ हो मगर इसे देखा और दिखाया जाना चाहिए ख़ास तौर से उन लोगों को जिन्हें लगता है कि राजस्थान में कहानियाँ नहीं है फिल्माने के लिए। अरे आप एक अखबार की कटिंग से भी पूरी फिल्म की कहानी रच सकते हैं इसके लिए इस फिल्म को देखिए और नहीं तो इसके लिए भी देखिए की राजस्थान में पर्दे पर सिनेमा आता ही कितना है?
अपनी रेटिंग... 3 स्टार