फिल्म रिव्यू

रिव्यू- मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’

Featured In IMDb Critic Reviews

मैं सीता हूँ, मैं सावित्री हूँ, मैं फातिमा हूँ, मैं खदीजा हूँ , मैं औरत हूँ, मैं बहन हूँ, बेटी हूँ,  मां हूँ। औरत के जाने कितने ही रूप इस कायनात में बिखरे पड़े हैं। और बिखरी पड़ी हैं उनकी लाखों कहानियाँ, उनके दुःख, दर्द, तकलीफ़ की। उन सभी दुःखों की कहानियों पर ‘अमीना’ फ़ातिहा पढ़ने आई है।

मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’
मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’

औरत ने मर्दों की अना की तक्सीम के लिए बहुत सी कुर्बानियां दी हैं। यह सच है वरना औरतों की इतनी कहानियाँ सच और कल्पना के आवरण में लपेटकर नहीं लिखी, बनाई जातीं। फिर यह भी जरुर है कि अच्छी कहानियाँ सच्ची नहीं होती और सच्ची कहानियाँ अच्छी नहीं होती। ‘अमीना’ के साथ भी यही हुआ है कि सच्ची कहानी होते हुए भी यह तकनीकी रूप से अच्छी नहीं हो पाई है। जिसकी बड़ी वजह इसका सीमित बजट है। बावजूद कम बजट के एक अच्छी और सच्ची कहानी जरुर अमीना के रूप में मीना बुनती है।

एक लड़की मीना जो थियेटर करती है। अमीना का किरदार निभाती है। उसके नाटक का नाम है ‘यहाँ अमीना बिकती है।’ लेकिन क्या हो जब थियेटर में किरदार निभाते हुए वह आपकी अपनी जिंदगी से जुड़ जाए? क्या हो जब किसी लड़की को रेप कर दिया जाए और बलात्कारी नाबालिग कहकर माफ़ कर दिए जाएं? अमीना बेची गई और मीना का बलात्कार हुआ तो क्या उन्होंने कोई क़ानून की मदद ली? या क़ानून को ही अपने हाथों में ले लिया? यह सब एक नाटक और एक फिल्म की कहानी से जोड़ते हुए ‘अमीना’ हमें दिखाती है।

मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’
मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’

हमारे देश में हर 15 मिनट में एक रेप होता है, एक दिन में 96, एक साल में 35 हजार और हजारों, लाखों केस अनसुने हैं। पैसों का लालच हो या मजबूरी, रोती अमीना ही है। यह भी सच है कि हर सच्ची कहानी का अंजाम दिलचस्प और खुशगवार नहीं होता। फिल्म कहती है कि रात चाहे जितनी अंधेरी हो रोशनी को मिटा सकती नहीं जिस दीये को खुदा बचाए उसे आंधियां भी बुझा सकती नहीं। लेकिन क्या मीना, अमीना, सीता, सावित्री जैसी महिलाएँ कभी आंधियां बन संकेंगी?

यह भी सच है कि यह फिल्म कोई क्रांति नहीं करती बल्कि यह एक ऐसे केस को उजागर करती है जिसके बाद नाबालिगों द्वारा किये गये संगीन अपराधों की सजा भी बालिगों जैसी क़ानून में कर दी गई। अब वह केस कौन सा था? संभव है बहुतों को यह नामालूम हो। कायदे से यह फिल्म सच्ची घटनाओं का एक तकनीकी रूप से हल्का कोलाज है। जिसमें साहित्य झलकता है, समाज झलकता है, औरत झलकती है और बजट की कमी भी। रहम-ए-खुदा, यहां अमीना बिकती है जैसे गाने और कव्वाली सुनने में अच्छे लगते हैं।

मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’
मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’

रेखा राना, उत्कर्ष कोहली, अनंत महादेवन, लता हया, प्रशांत जयसवाल, कुमार राज, प्रोफेसर सविता पवार, आदित्यराज पवार, आशुतोष पवार, प्रोफेसर किशन पवार, शंकर अय्यर, मनु मलकानी, अबीर गोयल आदि तमाम लोग मिलकर एक सीमित बजट वाली अच्छी कहानी को वनटाइम वाच जरुर बनाते हैं। यदि इन्हें कुछ और बजट मिलता तो वॉयस ओवर करने वाले ‘रजा मुराद’ की आव़ाज की तरह यह फिल्म भी अभिनय, सेट्स, बैकग्राउंड स्कोर, कास्टिंग की लिहाज से भारी हो सकती थी।

मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’
मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ती ‘अमीना’

लोकेशन मुंबई, दिल्ली, भुज, अफ्रीका, यूएसए, फ्रांस जैसी रियल लोकेशन्स, शाहनवाज वारसी की गाई कव्वाली, आइटम सांग, कहानी, स्क्रीनप्ले और आफताब हसनैन, प्रोफेसर किशन पवार के संवादों के साथ अफ्रीकन गाने ‘तेरे तेरे’ को मिलाकर निर्देशक कुमार राज ने एक अच्छी भली कहानी को सीमित बजट से भी संभाले रखा है तो लिहाजा उनके निर्देशन पर भरोसा किया जाना चाहिए। फिलहाल तो यह मुर्दों पर फ़ातिहा पढ़ने आई है, वे मुर्दे जो दिमाग से हो चुके हैं और दिलों में उनकी कब्रें बन चुकी हैं।

अपनी रेटिंग ..... 3 स्टार

सिनेमाघरों में रिलीज की तारीख -12 अप्रैल 2024

 

Facebook Comments Box
Show More

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!