विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ- भाग दो
डॉ. रक्षा गीता के लिखे शोधपरक लेख “विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ – भाग एक” (भाग- एक को पढ़ने के लिए क्लिक करें) अभी तक आपने पढ़ा कि विज्ञापन होते क्या हैं। और असल में समाज पर उनका कैसे प्रभाव पड़ता है। कुछ लेखकों के विचारों को समाहित करते हुए रक्षा गीता ने अपने लेख के पहले भाग में यह समझाने का सफल प्रयास किया कि विज्ञापनों की क्या भूमिका है तथा स्त्री-पुरुष दोनों वर्गों को यह किस तरह प्रभावित करता है। आज के इस लेख की अगली कड़ी में पाठक वर्ग विज्ञापन की सही एवं सटीक परिभाषा के साथ-साथ विज्ञापन के कार्यों से भी परिचित होंगे। विज्ञापन लेखन पर आधारित हमारी यह सीरीज अभी और बहुत कुछ लेकर आएगी। हमारी सहयोगकर्ता डॉ. रक्षा गीता का विज्ञापन पर लिखी यह सीरीज ख़ास करके शोधार्थियों एवं प्रत्येक वर्ग के छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
विज्ञापन की परिभाषा
“विज्ञापन व्यापारिक अभिव्यक्ति का आधार होता है जो कि उत्पादित वस्तु अथवा विषय को बढाकर अप्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ताओं को प्रभावित करता है। एक प्रभावी विज्ञापन अपने सकारात्मक योगदान के रूप में बेचने वाले तथा खरीदने वाले दोनों को ही आर्थिक लाभ पहुँचाने में सक्षम होता है। विज्ञापन सम्प्रेषण का शक्तिशाली माध्यम है, जिसका उपयोग व्यक्तियों द्वारा कार्य करने के उद्देश्य से किया जाता है। यदि आप समाज के बहुत बड़े वर्ग से कुछ करवाना चाहते हैं तो विज्ञापन व्यक्तियों को निरंतर अपने उद्देश्यों के अनुरूप मानने की एक कला हैं।” (विलियम एम्. वेलकर, वर्ष- 1984 एडवरटाईज़िंग संस्करण, मेक्मिलन पब्लिशिंग कम्पनी न्यूयार्क) इसी तरह आधुनिक विज्ञापन और जनसंपर्क, में डॉ. तारेश भाटिया लिखते हैं – “विज्ञापन सूचनाएं प्रचारित करने का वह साधन है जो किसी व्यापारिक केंद्र अथवा संस्था द्वारा भुगतान प्राप्त कर हस्ताक्षरित होती है और इस सम्भावना को विकसित करने की इच्छा रखता है कि जिनके पास यह सूचना पहुंचेगी वे विज्ञापनदाता की इच्छानुसार सोचेंगे अथवा व्यवहार करेंगे।” इसलिए विज्ञापन आधुनिक जीवन का हृदय माना जाता है, जिसके बिना व्यावसायी व उपभोक्ता दोनों की उन्नति संभव नहीं।
विज्ञापन उत्पादक अथवा निर्माता को लाभ पहुंचता है, उपभोक्ता को शिक्षित करता है, विक्रेता को सहायता देता है, व्यापारियों व उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करता है और सबसे महत्वपूर्ण वह उत्पादन और उपभोक्ता के बीच सम्प्रेषण का काम करता है। संजय बघेल लिखते हैं – “विज्ञापन ने हमें पुरातन और पारम्परित सामजिक जीवन शैली से निकल कर आधुनिक और स्वस्थ बनाया, (बहुत सुख सुविधाओं से सम्पन्न बनाने में विज्ञापन की अभूतपूर्व भूमिका है ए.सी. फैन, प्रेशर कूकर, म्यूजिक सिस्टम आदि हमने विज्ञापन देखने बाद खरीदे जबकि पहले ये सब उच्च वर्ग तक सीमित था क्योंकि हमें जानकारी भी नहीं थी। सिर से लेकर पाँव तक के पहनावे भी अब विज्ञापन तय करने लगे है। हर चीज़ जो बाज़ार में विज्ञापन के रूप में बिकाऊ हो वह आधुनिक और नवीन कहलाएगी। विज्ञापन मनुष्य की इसी मनोवृति का फायदा उठाकर अपनीं चीजों को बेचते है और बिकी हुई इसी नवीन संस्कृति का नाम है “ग्लोबल संस्कृति।” आजकल विज्ञापन उपभोक्ता को गुमराह करने का काम करते हैं। इसलिए उपभोक्ताओं के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता हैं कि वे विज्ञापनों से वस्तुओं की गुणवत्ता का अंदाज़ा ना लगाये साथ ही भ्रमित करने वाले विज्ञापनों से सावधान रहे। जगदीश्वर चतुर्वेदी ,सुधा सिंह लिखते हैं – “विज्ञापन के प्रभाववश हमें मीडिया जनित चीजें, बातें, मिथ, नायक, नायिका, राजनेता, विचारधारा आकर्षित करती हैं। वे हमें डिस्टर्ब नहीं करते इस प्रक्रिया में नये संस्कार और आदतें बनती है।” कुछ ऐसा ही मानना है संजय बघेल का भी वे क्रेडिट कार्ड के विज्ञापनों का उदाहरण देते हुए कहते हैं – “आदत को बदलना विज्ञापन का काम है लोगों को नए से नए आईडिया देना… “आज नकद कल उधार” की पूरी अवधारणा को ही बदलते हुए यह अवधारणा विक्सित कर दी कि “आज खरीदों खाओ पियो मौज करो और कल भरो”… विज्ञापन वस्तु या सेवा की माँग उत्पन्न करने की कला है, एक प्रकार की व्यापारिक शक्ति है यह फैंटेसी की महामारी का युग है। इस युग में सत्य सबसे दुर्लभ चीज है इन दिनों बाज़ार में जीवन में विज्ञापन में मीडिया, राजनीति जीवन शैली आदि सभी क्षेत्रों में सत्य दुर्लभ हो गया है। सत्य को दुर्लभ बनाने में मासकलचर मीडिया की केन्द्रीय भूमिका है। जीवन मूल्य की दृष्टि से लालच बुरी चीज़ है लेकिन विज्ञापन में वस्तुओं के प्रति लालच पैदा करना अच्छी चीज माना जाता है। वस्तुओं का लालच ही है जो बाज़ार को चंगा रखती है और घरों में वस्तुओं का ढेर लगा देती हैं। इस तरह झूठ की नींव पर विज्ञापन खड़ा किया जाता है।
विज्ञापनों के कार्य
विज्ञापन का प्रमुख कार्य वस्तुओं के विषय में सामान्य जनता को जानकारी देना होता है। जानकारी के बाद ही उपभोक्ता में उसे खरीदने की इच्छा जागृत होती है, तभी विक्रय की सम्भावना बढ़ती है। माँग उत्पन्न होती है, जो विज्ञापन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य है। जब उपभोक्ताओं के समक्ष वस्तु का बार-बार विज्ञापन एवं प्रचार किया जाता है, बाजार में वस्तु की माँग तभी पैदा होती है और जनता में उसे क्रय करने की इच्छा जागृत होती है। फलस्वरूप उसकी माँग बढती है। माँग में वृद्धि के साथ-साथ नए-नए ग्राहकों को उत्पन्न करना व वस्तु की माँग में वृद्धि करना भी विज्ञापन का उद्देश्य होता है। उत्पाद की प्रसिद्धि में वृद्धि करना, व्यवसाय में वृद्धि करना है उत्पादन करने वाली कंपनी के प्रति जनता में विश्वास जागृत होता है। ताकि बाज़ार में माँग स्थिर बनी रहे।
उत्पाद की वैकल्पिक वस्तुओं के उपयोग के प्रति हतोत्साहित करना भी विज्ञापन का कार्य होता है। विज्ञापन की मूल प्रकृति और स्वरुप के विषय में संजय बघेल लिखते हैं- विज्ञापन का मूल उद्देश्य है, बेचना … इसके लिए कई प्रकार के उत्तेजक और उत्प्रेरक अवयवों का सहारा लिया जाता है। इनमे सर्वाधिक सफल अवयव माना जाता है सेक्स और रोमांस… विज्ञापन में लड़की को मनुष्य (आदमी) की इच्छा पूरी करने वाली एक उत्पाद के रूप में दिखाया जाता है… विज्ञापन सपने और उम्मीदों को बेचकर ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है उनका कहना है कि वह ग्राहकों को ऐसे स्थान पर ले जाता है जहाँ वह ब्रांड से जुड़कर रोमांचित अनुभव करता है अपने आपको उसका हिस्सा मानता है। फ्रांक जेटकिंस लिखते हैं – विज्ञापन एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हमें यह पता चलता है कि हमें क्या बेचना है? अथवा हम क्या खरीदना चाहते हैं? विज्ञापन से उपभोक्ता में रूचि पैदा हो जाती है तो वह उसे पाना चाहता है।
उपर्युक्त कार्यों की पूर्ति हेतु विज्ञापन का प्रभावशाली होना अनिवार्य है, इसके लिए विज्ञापनकर्ता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके उत्पाद का संभावित ग्राहक कौन है? अर्थात् संभावित ग्राहको की रूचि को दृष्टिगत रखकर विज्ञापन का प्रारूप तैयार करना चाहिए। उपभोक्ता को इस बात का एहसास जगाना चाहिय कि उस वस्तु को खरीद कर समाज में उसका रुतबा बन रहा है। (आज रवि किशन पान मसाला (गुटखा) के विज्ञापन में कहता है कि अपना रुआब बदलो) विज्ञापन को प्रभावकारी बनाने के लिए उसमें वस्तु की नवीनता का प्रदर्शन किया जाता है। उसमें नए परिवर्तन के साथ नये सुधार दिखाए जाएँ जैसे साल में एक दो बार उत्पाद में कुछ नई तकनीक, डिजाईन या रंग के साथ या तो कुछ उपहार लाटरी आदि के साथ नया प्रस्तुतीकरण हो ताकि उपभोक्ता नवीनता के रोमांच में या लालच में उस वस्तु को खरीदे ही खरीदे। इसके लिए विज्ञापन में कई गुणों का एक साथ होना अनिवार्य है। “जहाँ वाणिज्य और व्यवसाय के माध्यम से उपभोक्ता की मन:स्थिति और उसके वर्ग का निर्धारण किया जाता है वहीं प्रबंधन के माध्यम से वस्तुओं को बेचने की व्यवस्था की जाती है। डिज़ाइन की भूमिका विज्ञापन को आकर्षक एवं लुभावना बनाने में निहित है जबकि पत्रकारिता और साहित्य अपनी रचनात्मकता एवं सूचना देने की अपूर्व कला के माध्यम से आम उपभोक्ता तक अपनी पहुँच बनाने में है।
विज्ञापन का वास्तविक कार्य जनता को जागरूक करना होता है उन्हें सचेत करना होता। वस्तुत: सभी विज्ञापन उत्पाद बिक्री के लिए नहीं बनाये जाते, सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओ के द्वारा जनहित में जारी विज्ञापनों का मकसद ही होता हैं जनता को विभिन्न सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक करना। उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने वाले विज्ञापन इस क्षेत्र के दिलचस्प उदाहरण हैं। इन विज्ञापनों में आम नागरिकों को हलके-फुल्के तरीक़े से उपभोक्ताओं के अधिकारों के बारे में बताते हैं। धुम्रपान, नशा, परिवार कल्याण तथा जनसँख्या नियंत्रण को लेकर बनाये गए विज्ञापनों ने समाज को जागरूक करने के अच्छे प्रयास किये हैं। जो समाज पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं। ये विज्ञापन हमें सूचना प्रदान करने के साथ-साथ जागरूक करने का भी कार्य करते हैं। अर्थात विज्ञापनों का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अत: इनका प्रयोग निजी लाभ के बजाय समाज की भलाई किया है और समाज में इसके प्रति जागरूकता फैलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हमारा विषय टीवी-विज्ञापन है, जिसमें लम्बे समय से चली आ रही परम्परागत रुढ़िवादी अवधारणा को तोड़कर एक विकसित समाज के निर्माण का प्रयास किया गया है। ऐसे ही कुछ विज्ञापनों के निर्माण में निहित कारण और समाज पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए उनका विश्लेषण करना हैं।
क्रमश: जारी….