फिल्म रिव्यू

रिव्यू- जातियों का दंश झेलती ‘ठेकेदारी’

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अव्वल तो राजस्थान में राजस्थानी सिनेमा के नाम पर कुछ ढंग का बन नहीं रहा। तिस पर यहाँ के सिनेमा को न देखने का दर्शकों का अभाव। सिनेमा बनाने वालों का सारा आरोप-प्रत्यारोप दर्शकों पर मढ देना, यहाँ के सिनेकारों की ख़ास आदत में शुमार है। अपन भी कसम खा चुके थे कि राजस्थानी सिनेमा के नाम पर परोसे जा रहे कचरे को अब नहीं देखेंगे। आखिर अपनी ही माँ बोली में बनने वाली कला की अर्थी भी कब तक कंधे पर कोई ढो सकेगा। यही वजह है कि मजबूरन यहाँ के सिनेमा के लिए मुझे राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश लिखना पड़ा किंतु इस बीच कोई-न-कोई फ़िल्म ऐसी आ ही जाती है जिसे देख फिर से एक उम्मीद की किरण झिलमिलाती नजर आने लगती है। लंबे समय बाद करीब चार महीने के अंतराल के बाद किसी फ़िल्म का रिव्यू लेकर हाजिर है- गंगानगर वाला

जातियों का दंश झेलती 'ठेकेदारी'
जातियों का दंश झेलती ‘ठेकेदारी’

फ़िल्म की कहानी कई मोर्चे खोलती है प्रधान की गाँव वालों से ही दुश्मनी, द्वेष के साथ तैरता वैमनस्य, पंचायत में होती राजनीति, सरकारी नौकरी की समस्या से जूझता युवा वर्ग और उस नौकरी के आभामंडल पर टिकी उसकी वैवाहिक जिन्दगी, जातिगत द्वेष और दुर्भावना, प्रेम के कई एंगल के साथ नशे की समस्या को उठाती राजस्थानी फ़िल्म ठेकेदारी कई जगहों पर फिसलती जरूर है किंतु अगले ही पल कोई ऐसा सीन निर्देशक पेश कर देता है कि फ़िल्म की बिगड़ती लय, ताल और उसके सुरों में चार चाँद लग जाते हैं।

राजस्थानी सिनेमा में एक अच्छी कहानी की तलाश में भटकते हुए जब किसी फ़िल्म में अच्छी कहानी के साथ-साथ दो-चार कर्ण-प्रिय गाने भी सुनने-देखने को मिल जाए तो कहानी तो दिल छूती ही है साथ ही उसका बैकग्राउंड स्कोर, चंद लोगों की उम्दा कलाकारी के साथ उस फ़िल्म की कलरिंग, वी,एफ़.एक्स के साथ लोकेशंस भी लुभाने लगती है। फ़िल्म ठेकेदारी (thekedari- the blood papers) कई सारे सवालों को उठाने के साथ ही एक बार पुनः उस उम्मीद को भी जगा देती है जिसे देख महसूस होता है कि अभी भी कहीं कोई प्राण उस सिनेमा की अर्थी में बच गये हों।

जातियों का दंश झेलती 'ठेकेदारी'
जातियों का दंश झेलती ‘ठेकेदारी’

निर्देशक राजीव कुमार ने ही इसकी कहानी लिखी है। कहानी के दम पर निर्देशक इसे देखने लायक तो बनाते ही हैं लेकिन कुछ हल्की-हल्की की चूकें उनके निर्देशन को प्रभावित तो करती ही हैं बावजूद इसके जिस तरह का संतुलन वे अपने निर्देशन में बैठाते हैं उससे संतुष्ट हुआ जा सकता है।

रोहन सिंह का अभिनय कई जगहों पर बेहद मार्मिक बन पड़ा है बिस्तर पर कराहते हुए जिस तरह रामधन के किरदार में रोहन उतरते हैं वह आँखें नम कर जाता है। दीक्षा मान डॉक्टर नंदिता के रोल में प्यारी लगी और जमी भी वहीं रंगमंच से निकली कशिश भाटिया अपनी ओर ध्यान खींचती है। अल्ताफ़ हुसैन बेवजह राजस्थानी सिनेमा में अपना समय नष्ट कर रहे हैं। अल्ताफ़ राजस्थानी सिनेमा के इरफ़ान खान हैं जिन्हें अपनी ऊँची उड़ान उड़ने के लिए माया नगरी का रूख लाजमी करना ही चाहिए। उनके अभिनय में हर बार एक निखार नजर आता रहा है। मनोज कुमार अपने रंग-ढंग से फ़िल्म में जिस तरह डूबे हैं वह आपको भीतर तक उद्वेलित करता है। सिस्टम की खामियों के चलते रतन के किरदार में मनोज आम इंसान की तरह टूटे नजर आते हैं। सुभाष देवा सरीखे लोग ओवर एक्टिंग की दुकान ही खोल देते हैं।

जातियों का दंश झेलती 'ठेकेदारी'
जातियों का दंश झेलती ‘ठेकेदारी’

डी.ओ.पी करने वाले रवि कसंवा ने जिस तरह फ़िल्म को दर्शनीय बनाया है वह एक उम्मीद की किरण जगाता है यहाँ के सिनेमा के लिए कि सिर्फ़ अभिनय के लिए ही नहीं फ़िल्म के तकनीकी पहलूओं के लिए भी राजस्थान का सिनेमा बेहतर कोशिश करने में जुटा हुआ है। चंद दो चार खामियों को छोड़ दिया जाए तो यह पूरी फ़िल्म कई मोर्चों पर सफ़ल होती है। जब अपनी कहानी के साथ-साथ लेकर चलते हुए बिना कोई उपदेश पेले पर्दे पर सिनेमा छन रहा हो तो उसे एक बार देख लेना चाहिए। शायद इसी बहाने राजस्थानी सिनेमा की उठ चली अर्थी से कुछ चमत्कार हो जाए और फिर से यहाँ का सिनेमा देखने के लिए दर्शकों की लाइन लग जाए। बाकी तो देश जातियों का दंश और उसका जहर आज भी अपने दिलों में पाले ही बैठा है…

ट्रेलर लिंक 

अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार

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