ओल्ड रिव्यू- सीधी, साधारण, सपाट ‘वैक्सीनेशन’
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चीन के बुहान से फैला एक ऐसा वायरस, जिसकी चपेट में आई पूरी दुनिया। उस वायरस को नाम मिला कोविड 19 और इस पर ढेरों छोटी-बड़ी फिल्में बनी। कुछ अच्छी तो कुछ निम्न स्तर की। आज गंगानगर वाला में पढ़िए एक पुराना लिखा हुआ रिव्यू- सीधी, साधारण, सपाट ‘वैक्सीनेशन’
आज हंगामा के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई है। ‘वैक्सीनेशन-सबका होगा’ कहानी कहने की जरूरत नहीं शायद इस विषय पर। फिर भी ये बता दूं कि एक लड़का लड़का नहीं कुछ उससे बड़ा ही समझें। देश की प्रतिष्ठित परीक्षा यूपीएससी पास करके देश और समाज की सेवा करना चाहता है। एक प्रेमिका है जिससे वह शादी करना चाहता है। तो क्या वह यूपीएससी पास कर पाया या नहीं? क्या उसकी प्रेमिका से शादी हुई या नहीं? यह तो फिल्म देखकर पता लगाओ भाई साहब। और भी बहुत कुछ है इसमें देखो-देखो। परंतु इधर जब कोरोना फैला तो उस लड़के की ड्यूटी भी लगी ‘वैक्सीनेशन’ करने के लिए झारखंड के गांव चिरकुंडा में। कैसे उन्होंने मुश्किलों का सामना किया और गांव में ‘वैक्सीनेशन’ को अंजाम दिया। बस इत्तू सी है कहानी।
अब बात कुछ तकनीकी और तर्क वाली करें? तर्क ये कि 21 वीं सदी में चिरकुंडा गांव की आबादी 50 हजार के आस पास है। लेकिन गांव में पानी, शौचालय, स्कूल आदि की समस्या है। ये सब ना के बराबर है। लेकिन गांव में सबके पास मोबाइल है और उसमें व्हाट्स एप्प भी है। आजकल व्हाट्स एप्प ही तो सबकुछ है नहीं? हर छोटी-बड़ी खबर उसमें आती है। लेकिन गांव के लोग पढ़ना नहीं जानते। जो पढ़ना नहीं जानते वो व्हाट्स एप्प कैसे चला लेते हैं? चलो मान लिया चला लेंगे। पर क्या इतना भी गांव में कोई पढ़ा लिखा नहीं कि वैक्सीनेशन के लिए लगाए गए पोस्टर तक नहीं पढ़ पा रहा?
खैर इधर विपक्ष भी नहीं चाहता कि आम लोगों को वैक्सीनेशन हो। जो खबरों में हमने भी देखा था। क्योंकि वैक्सीनेशन हुआ तो सरकार सफल हो जाएगी ऐसा विपक्ष को लगता है। तो उन्होंने भ्रामक प्रचार शुरू किया। फिर भी आपने और हमने देखा कि उन्होंने वैक्सीनेशन करवाया। खैर भाई हम राजनीति में क्यों घुसें? हमें तो फिल्म देखनी है उस पर बात करनी चाहिए नहीं? तो भाई साहब राजनीति भी इस फिल्म में नजर आती है।
जो हो सो हो। लेकिन भाई साहब फिल्म बनाने वालों ने बहुत देर कर दी फिल्म रिलीज़ करने में या बनाने में? यह आप उनसे पूछिए क्यों कर दी देर। अब तो ये महामारी भी जैसे गए गुजरे दिन की बात हो गई हो। फिल्म में दूसरे तकनीकी पहलू देख लें अब? कलाकार दो-चार को छोड़ कोई ढंग से एक्टिंग का ककहरा भी सीखा हुआ नहीं लगता। लेखक ने फिल्म की कहानी ठीक बना ली। लेकिन उसे स्क्रिप्टिंग करते हुए कई जगह झोल नजर आते हैं। जरूरी दो चार रिसर्च ना भी करके आप कम से कम सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को उन जैसा ही दिखा-बना तो क्या बिगड़ जाता? कुछ कलाकार ढंग के चुन लेते तो क्या बिगड़ जाता? या उन्हीं से ढंग से काम करवा लेते तो क्या बिगड़ जाता?
कैमरा, सिनेमैटोग्राफी, बैकग्राउंड म्यूजिक, एडिटिंग आदि में थोड़ा सा रंदा और मार देते तो क्या बिगड़ जाता? गाने चलो आपने ठीक बना लिए लगभग और यही एक वजह है कि गानों ने इस फ़िल्म को थाम लिया। वरना तो यह एकदम सीधी, साधारण, सपाट फिल्म से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन गांव के लोग पढ़ना नहीं जानते। जो पढ़ना नहीं जानते वो व्हाट्स एप्प कैसे चला लेते हैं? चलो मान लिया चला लेंगे। पर क्या इतना भी गांव में कोई पढ़ा लिखा नहीं कि वैक्सीनेशन के लिए लगाए गए पोस्टर तक नहीं पढ़ पा रहा?
हां ‘वैक्सीनेशन सबका होगा’ जैसा टाइटल तो सही चुन लिया लेकिन जरा फिल्म बनाने से पहले अपने सिनेमाई उपकरणों का भी वैक्सीनेशन कर लिया होता तो यह फिल्म टोटल टाइम वेस्टेज कूड़े से तो बेहतर हो पाती यह जरूर तय है। आप लोग बिल्कुल ठाले बैठे हैं दुनिया के सब काम कर चुके हैं तो हंगामा पर देखिए नहीं तो कुछ दिन इंतजार कीजिए एम एक्स प्लेयर पर भी नजर आ जाएगी।
नोट- यह रिव्यू इस फ़िल्म की रिलीज के समय सीधा फेसबुक पर लिखा गया था तब तक गंगानगर वाला वेबसाइट गूगल पर नहीं थी।