वेब रिव्यू- राजीव गाँधी हत्याकांड की परतें खोलती- ‘द हंट’

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21 मई 1991 की वह रात आज भी देश की स्मृतियों में धुंधली नहीं हुई है, जब तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में एक आत्मघाती हमले में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी। इस घटना ने केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। इसी ऐतिहासिक राजनीतिक हत्या की परतें अब ओटीटी मंच सोनी लिव पर आई वेब सीरीज़ ‘द हंट – द राजीव गांधी एसेसिनेशन केस’ में सामने आती हैं, जो दर्शक को न केवल घटना का पुनरावलोकन कराती है, बल्कि जांच एजेंसियों की जद्दोजहद का साक्षी भी बनाती है।
किताब से पर्दे तक- इस सीरीज़ का आधार पत्रकार अनिरुद्ध मित्रा की चर्चित पुस्तक ‘90 डेज़’ है, जिसमें उन्होंने उस विशेष जांच दल (SIT) की कार्यप्रणाली को कलमबद्ध किया था, जिसे राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए तत्कालीन सरकार ने गठित किया था। पुस्तक में जहां तथ्यों का संकलन था, वहीं निर्देशक नागेश कुकुनूर ने पर्दे पर उसे संवेदनशीलता, संतुलन और सटीकता से उतारा है।

हकीकत से प्रेरित, भावनाओं से परे- ‘द हंट’ में न कोई नायक है, न खलनायक। यहां पात्र हैं – अफसर, गवाह, संदिग्ध और उन साजिशकर्ताओं की परछाइयाँ, जिन्होंने एक प्रधानमंत्री को मारने की योजना बनाई थी। सीरीज़ का लेखन इस तरह से किया गया है कि नाटकीयता की बजाय सच्चाई को प्रधानता दी गई है। संवादों में एक पंक्ति है – “किसी के लिए हीरो, किसी के लिए आतंकी” – जो पूरी सीरीज़ की दिशा और दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है।
हत्या की पृष्ठभूमि और लिट्टे की भूमिका- राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान श्रीलंका में सक्रिय उग्रवादी संगठन लिट्टे (Liberation Tigers of Tamil Eelam) के प्रभाव को रोकने के लिए वहां भारतीय शांति सेना भेजी थी। इस हस्तक्षेप से नाराज़ लिट्टे ने उन्हें दुश्मन मान लिया। 1991 के लोकसभा चुनावों में जब राजीव गांधी ने फिर सत्ता में लौटने की संभावना जताई और श्रीलंका नीति को सख्ती से लागू करने की बात कही, लिट्टे ने उन्हें हटाने की योजना बनाई। तमिल आत्मघाती हमलावर ध्यानमयी उर्फ़ धनु को इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया गया। उसने श्रीपेरंबुदूर में भीड़ के बीच जाकर खुद को बम से उड़ा दिया, जिससे राजीव गांधी की मौके पर ही मृत्यु हो गई। यह हमला भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे सुनियोजित हत्याओं में गिना जाता है।

सीरीज़ की विशेषताएँ- निर्देशक नागेश कुकुनूर ने एक कठिन और संवेदनशील विषय को बेहद संजीदगी से प्रस्तुत किया है। न कोई अनावश्यक भावुकता, न किसी पक्ष का प्रचार। कैमरा वर्क, सिनेमैटोग्राफी, और प्रोडक्शन डिज़ाइन उस दौर – 1991 – को यथासंभव विश्वसनीय बनाने में सफल हुए हैं। साहिल वैद ने एस.पी. अमित वर्मा के रूप में जाँच अधिकारी की भूमिका में शानदार प्रदर्शन किया है। उनके चेहरे पर झलकती बेचैनी, भीतर का आक्रोश और दृढ़ता दर्शकों को उनके किरदार से जोड़ती है। अमित स्याल और अन्य सह-कलाकारों का चयन और अभिनय भी उल्लेखनीय है।
भाषा बनी बाधा- हालांकि सीरीज़ के हिन्दी संस्करण में तमिल संवादों की अधिकता दर्शकों को खल सकती है। हिंदी सब-टाइटिल न होने या कमज़ोर प्रस्तुति के चलते गैर-तमिलभाषी दर्शकों को कई दृश्य समझने में कठिनाई हो सकती है। हिंदी दर्शक वर्ग को ध्यान में रखते हुए भाषा के स्तर पर और बेहतर प्रयास अपेक्षित थे।
अधूरे सवाल भी उठाती है यह कहानी, सीरीज़ के अंत में कुछ ज्वलंत प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं –
- क्या राजीव गांधी को श्रीपेरंबुदूर भेजना एक रणनीतिक भूल थी?
- क्यों साजिशकर्ताओं को मौके पर ही मार गिराया गया – क्या कोई नहीं चाहता था कि वे जीवित पकड़े जाएं?
- क्या वाकई उन 90 दिनों की तफ्तीश से हर सच सामने आ गया?

‘द हंट’ एक थ्रिलर नहीं, एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। यह सीरीज़ सूचना और संवेदनशीलता का सधा हुआ मेल है। नाटकीयता से परे जाकर यह इतिहास को उसके मौलिक स्वरूप में दिखाने का साहस करती है। नागेश कुकुनूर जैसे निर्देशक ही इस नाजुक विषय को इस तरह से संभाल सकते थे। इसके साथ ही इसमें अभिनय करने वाले हरेक पात्र की जितनी तारीफें की जाएं कम होगी। अमित सियाल, साहिल वैद, भगवती पेरुमल, दानिश इकबाल, गिरीश शर्मा, विद्युत गार्गी और शफीक मुस्तफा अपने-अपने किरदार में रमे नजर आते हैं साथ ही इसकी लोकेशन, सेटअप, मेकअप, बैकग्राउंड स्कोर के साथ हर चीज इतनी बारीकी और करीने से सजी हुई है कि इसे आप एक सिटिंग में ही खत्म करके दम लेते हैं।
अपनी रेटिंग 4.5 स्टार