रिव्यू- पूरी फ़िल्म ‘भगवान भरोसे’ दर्शक राम भरोसे
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Movie Review Bhagwan Bharose: भारत का एक गाँव, 1989 का दौर, राम मंदिर निर्माण की तेज होती बहस, सूर्य ग्रहण को राहू केतु की कहानी से जोड़ना, बालमन की दास्तान, गाँवों तक बिजली की हौले-हौले बढ़ती पहुँच और इसके साथ ही टेलीविजन का आना, आर्थिक उदारीकरण की ओर बढ़ता देश, सुर-असुर का हिन्दू मुस्लिम से जुड़ना, अपने धर्म की रक्षा करने की बातें, हर कदम पर मंदिर बना देने को आमादा भीड़ और भी बहुत सी बातें हैं इस फ़िल्म में।
भगवान भरोसे फिल्म समारोहों में बटोर चुकी है तारीफें
साल 2023 में सिनेमाघरों में आने से पहले कई फिल्म समारोहों में तारीफें बटोर चुकी इस फ़िल्म को देखने के कई मौके अपने पास आये लेकिन फ़िल्म के शीर्षक की तर्ज पर कहूँ तो अपना इस फ़िल्म को देखने और उस पर कुछ लिखने का मन भी शायद भगवान भरोसे (Movie Review Bhagwan Bharose) ही रह गया। कहानी है दो बच्चों की जो गाँव के बाहर बने कुँए पर बैठे नाग लोक और नरक लोक की बातें कर रहे हैं। पढ़ने लिखने में नाकारा इन बच्चों ने अब तक जितना भी पढ़ा और जाना सब पंडित जी से, तभी तो स्कूल में जब एक दिन एक अधिकारी आकर पूछता है सूर्य ग्रहण कैसे होता है-
तो इन्हीं दोनों बच्चों में से एक राहू और केतु की कथा बांचने लगता है। पूरी तरह से धार्मिक इस गाँव में बच्चे भी धार्मिकता की चादर कब की ओढ़ बैठे हैं। इसी धार्मिकता के चक्कर में फ़िल्म कई बार तर्क का साथ भी छोड़ती है क्योंकि जब बात आस्था की हो तो कोई भला तर्क क्यों करने लगे? पड़ोसी दूसरे धर्म के हैं तो किसी के कहने पर बच्चों ने मान लिया यही असुर है फिर मेले में एक दिन राम मंदिर को लेकर तेज तर्रार भाषण जनता ने सुना तो उसकी भुजाएं फड़कने लगीं। हालांकि ऐसे सीन देखते हुए भुजाएं दर्शकों की भी फड़कना लाजमी है।
राम जन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में रची बसी और तब के ग्रामीण भारत के हालातों को दिखाते हुए सुधाकर नीलमणि ने उम्दा कहानी लिखी है, जिसे उन्होंने मोहित चौहान के साथ मिलकर इसकी स्क्रिप्ट को रचने का भी काम किया है। उस दौर की पीढ़ी को जीवंत करती यह फ़िल्म भले ही बड़े बजट और बड़े कलाकारों के साथ से न बन पाई हो किन्तु इसकी एक खासियत है कि यह आपको खत्म होते-होते आपके भीतर सत् और असत् का जागरण अवश्य कर जाती है। (Movie Review Bhagwan Bharose)
क्यों देखें भगवान भरोसे
विनय पाठक, मनु ऋषि चड्ढा, सतेंद्र सोनी, स्पर्श सुमन, मौसमी मखीजा, श्रीकांत वर्मा, महेश शर्मा, सावन टांक का होना भले ही सिनेमाघरों में दर्शकों को नहीं खींच कर ला सका हो किन्तु सिने-रसिकों ने इसे अवश्य सराहा है। कई फ़िल्मों से अलग-अलग तरह से जुड़े रहे शिलादित्य का निर्देशन सुहाता है तो वहीं सबसे खूबसूरत इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी और आखिर में आने वाला गाना है जिसे देखते-सुनते हुए निर्देशक की मेहनत भी दिखाई पड़ती है।
कई सारे पंथों को साथ लेकर चलती ऐसी फ़िल्मों को देखा तो अवश्य जाना चाहिए और सराहा भी। तकनीकी तौर पर भी कई मोर्चों पर सशक्त बन पड़ी ऐसी फ़िल्में आपके भीतर बहुत कुछ बदलती हैं भले ही थोड़े समय के लिए। देरी से हमने रिव्यू जरुर किया है किन्तु आप इसे बुक माई शो पर बेहद कम रूपये देकर देखना न भूलिए। ऐसी फ़िल्मों के नाम भले ही भगवान भरोसे हो किन्तु इन्हें देखने के बाद आप दर्शक भी राम भरोसे हुए बिना नहीं रहेंगे…..
अपनी रेटिंग- 3.5 स्टार